रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के जो हालात बयां किए, वे काफी हद तक सटीक माने जाएंगे। उन्होंने न सिर्फ वहां की स्थिति बताई, बल्कि यह संकेत भी दिया कि हम किस तरह आगे बढ़ रहे हैं और सरकार की नीति क्या है? उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कई ऐसी बातें हैं, जो उन्हें तो मालूम हैं, लेकिन उनकी सार्वजनिक व्याख्या फिलहाल वह उचित नहीं समझ रहे हैं।
दरअसल, विपक्ष लगातार इस मांग पर अड़ा था कि सरकार वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चल रही तमाम गतिविधियों को साझा करे। सरकार से जवाब मांगना बेशक विपक्ष का सांविधानिक अधिकार है, मगर सैन्य कार्रवाइयों से जुड़़ी जानकारियां शायद ही कोई सरकार साझा करती है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से ऐसा करना मुनासिब भी नहीं माना जाता। यह बात विपक्षी दल भी जानते हैं, क्योंकि वे सभी कभी न कभी सत्ता में रह चुके हैं। संभवत: इसीलिए रक्षा मंत्री ने बंद दरवाजे के भीतर पार्टियों को कुछ जानकारियां देने का भरोसा दिया है।
सरकार एक अन्य वजह से भी इन सूचनाओं को सार्वजनिक करने से बच रही है। असल में, सरहद पर हालात अब भी नाजुक हैं और युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। बेशक चीन और भारत, दोनों में से कोई देश जंग के पक्ष में नहीं है, लेकिन यह आशंका है कि सीमा पर हुई सैन्य कार्रवाइयों के खुलासे से हालात कहीं ऐसे न बन जाएं कि न चाहते हुए भी दोनों को युद्ध में उतरना पड़ जाए। इससे कूटनीतिज्ञों की कोशिशों पर पानी फिर सकता है। लिहाजा, उन बातों पर चुप्पी साध लेना ही बेहतर है, जिनसे हालात संभलने की उम्मीदों को झटका लगे।
हालांकि, विपक्ष जिम्मेदारी का परिचय दे, तो संसद में इस बाबत बहस हो सकती है, और उसमें सरकार की आलोचना भी संभव है। सत्तारूढ़ दलों को इसे स्वीकार भी करना चाहिए। मगर इस सबकी एक सीमा है। लोकतंत्र में इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता कि संसद में गरिमापूर्ण वाद-विवाद हो और एक आम सहमति बने। वहां अगर कोई ऐसा प्रस्ताव पारित होता है, जिस पर तमाम राजनीतिक दलों की स्वीकृति हो, तो वह न सिर्फ आम लोगों में भरोसा पैदा करता है, बल्कि वैश्विक मंचों पर भी एक ताकतवर मुल्क होने का एहसास दिलाता है। मगर क्या अपने यहां अभी ऐसा मुमकिन है?
फिलहाल, रक्षा मंत्री अपना बयान संसद में दे चुके हैं और ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि सर्वदलीय बैठक में वह कुछ और सूचनाएं भी साझा करेंगे। लेकिन उसमें भी शायद ही सभी जानकारियां साझा की जाएंगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसे में सूचनाओं के लीक होने का खतरा होगा। सूचना-प्रौद्योगिकी के इस युग में वैसे भी गोपनीयता की कल्पना संभव नहीं।
सवाल है कि सीमा सुरक्षा व रक्षा मामलों में आखिर किस हद तक गोपनीयता जरूरी है? अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश कुछ मामलों में हमसे ज्यादा पारदर्शी हैं। फिर भी, वहां काफी कुछ परदे के पीछे होता है। अमेरिका में तो इतनी ज्यादा पारदर्शिता है कि अफसरों के बयान भी आम लोगों के बीच लिए जाते हैं। वहां की कांग्रेस (संसद) में खुफिया कार्रवाइयों की जानकारियां तक साझा की जाती हैं। मगर जिस सूचना से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो, वहां उस पर परदा डाल दिया जाता है। अफसर भी ऑपरेशनल इन्फोर्मेशन (कार्रवाई संबंधी सूचनाएं) की बात कहकर जवाब देने से इनकार कर देता है। ब्रिटेन में भी कुछ इसी तरह की व्यवस्था है। हां, तानाशाही मुल्कों में हम ऐसी कल्पना नहीं कर सकते। यहां तक कि पाकिस्तान जैसे देश में, जहां सत्ता पर वक्त-बेवक्त फौज हावी हो जाती है, और सरकार की जवाबदेही ज्यादा नहीं है, वहां पारदर्शिता से बचा जाता है। जिन देशों में जम्हूरी व्यवस्था नहीं है, वहां की हुकूमतों के लिए संचार के साधनों को भी नियंत्रित करना तुलनात्मक रूप से अधिक आसान होता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। सत्ता-प्रतिष्ठानों की वाजिब आलोचना इसकी मजबूती है। इसीलिए राष्ट्रहित के नाम पर हरेक सूचना को छिपाना भी ठीक नहीं। इससे बेवजह का विवाद पैदा होता है, और सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच विश्वास की डोर टूट सकती है। आज के नेताओं को ज्यादा पीछे नहीं, बस दो दशक पहले की राजनीति देखनी चाहिए। तब देश के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव थे और कश्मीर में आतंकवाद की आंच सुलग रही थी। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में जब कश्मीर का मामला पहुंचा, तब वहां पर भारत का पक्ष रखने के लिए सरकार ने विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था। आज आपसी संवाद के इसी तंतु को फिर से जोड़ने की जरूरत है। अगर सत्ता पक्ष समूचे विपक्ष को विश्वास में लेकर काम करे, तो कई फिजूल की बहसों से हम बच सकते हैं।
यहां कुछ पहल विपक्षी दलों को भी करनी पड़ेगी। वे ध्रुवीकरण की राजनीति करने से बचें। उनका गैर-संजीदा व्यवहार न सिर्फ सरकार को उनके खिलाफ करता है, बल्कि आम जनता में भी उनकी प्रतिष्ठा को गिराता है। यह बात मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस से बेहतर भला कौन जान सकता है? साल 2008 में जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ था, तब केंद्र में उसी की सरकार थी। उस वक्त भारतीय जनता पार्टी ने इन हमलों का राजनीतिकरण किया था। नतीजतन, अगले विधानसभा चुनावों में उसे मुंह की खानी पड़ी थी। राजनीति में लानत-मलामत भी समय देखकर किया जाता है। राष्ट्रीय विपदा के समय की राजनीति का कोई फायदा नहीं होता, उल्टे मुंह की खानी पड़ती है। अनेक दल इसे समझ चुके हैं, लेकिन कुछ दल अब भी लकीर के फकीर बने हुए हैं।
आज के युग में लोगों को तमाम स्रोतों से सूचनाएं मिल रही हैं। चंद रुपये में सैटेलाइट की तस्वीरें भी हासिल हो जाती हैं। फिर भी, राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में सरकार की रणनीति और उसकी योजनाएं आम बहस का हिस्सा नहीं बननी चाहिए। ध्यान रहे, सूचना का अधिकार भी राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में मौन है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)