वर्दी में कब तक छिपे रहेंगे 

अपराध कथाओं के लेखकों ने अपराधियों के बेहतरीन रेखाचित्र खींचे हैं। फ्रांसीसी लेखक ज्यां जेने ने अपनी कालजयी कृति द थीफ्स जर्नल में एक अपराधी का अद्भुत चित्रण किया है, जिसमें वह इसलिए भी सफल हुआ कि यह...

offline
वर्दी में कब तक छिपे रहेंगे 
Manish Mishra विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी
Mon, 22 Mar 2021 11:17 PM

अपराध कथाओं के लेखकों ने अपराधियों के बेहतरीन रेखाचित्र खींचे हैं। फ्रांसीसी लेखक ज्यां जेने ने अपनी कालजयी कृति द थीफ्स जर्नल में एक अपराधी का अद्भुत चित्रण किया है, जिसमें वह इसलिए भी सफल हुआ कि यह काफी हद तक आत्मकथात्मक था। रूसी उपन्यासकार दोस्तोवस्की के उपन्यास क्राइम ऐंड पनिश्मेंट  का नायक भी शब्दों में रचा जाकर भी लेखक के रचनात्मक कौशल के कारण पाठक के समक्ष हाड़मांस के सजीव पुतले के रूप में मौजूद रहता है। इस तरह के बहुत से चरित्र विश्व साहित्य में बिखरे पड़े हैं और पाठकों को मानव स्वभाव समझने का बेहतरीन अवसर प्रदान करते हैं। इन सबके बीच अपराधियों की एक जमात ऐसी भी होती है, जिसे पहली नजर में तो अपराधी कहना भी मुश्किल है, यहां तक कि बाज वक्त तो अपने किए के लिए वह समाज में नायक के रूप मे सम्मानित होता है, पर अपने आचरण के ठंडेपन और क्रूरता में वह किसी शातिर अपराधी को भी मात दे सकता है। मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर सचिन वाजे ऐसा ही एक शख्स है, जिसकी प्रजाति को पूर्व में मुंबई पुलिस कमिश्नर रहे जूलियो रिबेरो ने वर्दी में अपराधी की संज्ञा से विभूषित किया है। 
अपने राजनीतिक आकाओं का लाडला सचिन वाजे, अति आत्मविश्वास के चलते कुछ  गलतियां न कर बैठता, तो निश्चित तौर पर किसी नायक की तरह फूल-मालाओं से लदा-फदा किसी अखबार या चैनल के लिए फोटो शूट करा रहा होता। रिबेरो ने जिन्हें अपराधी कहा, उन्हें आम बोलचाल की भाषा में ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ या मुठभेड़ विशेषज्ञ कहा जाता है। वैसे तो यह प्रजाति देश में हर जगह पाई जाती है, पर सत्तर के दशक में मुंबई में इसने विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। कारण था, उन दिनों शहर में सोने की तस्करी से अकूत धन कमाने वाले अपराधी गिरोहों के बीच चलने वाले गैंगवार। हाजी मस्तान और करीम लाला जैसे नाम घर-घर पहचाने जाने लगे थे। बंबइया फिल्म उद्योग में अपराध से कमाया काला धन खूब लग रहा था। तस्करी की ही तरह वहां भवन निर्माण में भी अपराधियों का बडे़ पैमाने पर प्रवेश शुरू हुआ। गैंग अपने विरोधियों का सफाया करते रहते, लेकिन उसमें खतरा था। एक तो दिनदहाडे़ हत्याओं से जनमत आंदोलित होता और सरकारें भी इसे चुनौती की तरह लेतीं। दूसरे इसमें जोखिम भी बहुत थे। फिर उन्होंने विरोधियों का सफाया करने के लिए एक आसान रास्ता अपनाया। इन्हीं दिनों बढ़ते अपराधों से निपटने के लिए अपराधियों को मार गिराने के चलन को सामाजिक स्वीकृति और सम्मान मिलना शुरू हो गया। पुलिस में भी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की पौध तैयार होने लगी। अपराधियों ने विरोधियों को निपटाने के लिए इनका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वे अपराधी विरोधियों की सटीक मुखबिरी करते और मुठभेड़ विशेषज्ञ उन्हें मार गिराते। कई बार तो गैंग ही पकड़कर किसी मुखालिफ को सौंप देता और पुलिस का काम कोई ‘मुठभेड़’ दिखाकर उन्हें मार देना भर बचता। अमूमन मारे गए अपराधियों पर इनाम घोषित हुआ रहता है, लिहाजा ‘हत्यारों’ को नगद इनाम, मेडल या तरक्कियों से नवाजा जाता। एक लचर न्याय-व्यवस्था में खुद को असहाय महसूस करने वाले जन-साधारण इन्हें मुक्तिदाता के रूप में पाते। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सब-इंस्पेक्टरों या इंस्पेक्टरों पर या उनके तथाकथित कारनामों पर कामयाब फिल्में बनीं और वे नायकों की तरह सम्मानित किए। किसी को फुरसत नहीं थी यह देखने की कि कैसे कुछ ही वर्षों में इन नायकों के पास करोड़ों रुपये की संपत्ति इकट्ठी हो जाती है। इनमें से कुछ तो फिल्म-निर्माता या बिल्डर भी बन गए हैं। वाजे की गिरफ्तारी के बाद अपराधियों, राजनीतिज्ञों और एनकाउंटर विशेषज्ञों का जो बदबूदार गठजोड़ सामने आया है, वह तो विशाल हिमखंड का ऊपर से दिखाई देने वाला छोटा सा टुकड़ा मात्र है।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सिर्फ बाहरी लोगों का नायक नहीं होता, उसका सबसे बुरा असर तो उसके अपने विभागीय सहकर्मियों पर पड़ता है। वे उसे कानून-कायदे की धज्जियां उड़ाते और विभागीय अधिकारियों का कृपा- पात्र बनकर तरक्की की सीढ़ियां फलांघते देखते हैं, तो स्वाभाविक ही है कि कानूनों के प्रति उनके मन में भी  अनास्था पैदा होती है और वे भी अपनी बारी से पहले तरक्की हासिल करने या दौलत हासिल करने के लिए हत्यारा बनने में गुरेज नहीं करते हैं। उत्तर प्रदेश में तो कई बार अभियान छेड़कर सांस्थानिक हत्याओं के पर्व मनाए गए हैं और ये आयोजन पुलिस की भाषा में ‘गुड वर्क’ की श्रेणी में आते हैं। इन्हें ‘गुड वर्क’ का लक्ष्य देते समय पुलिस का शीर्ष नेतृत्व भूल जाता है कि वह हत्यारों की जमात तैयार कर रहा है। मैंने अपनी लंबी सेवा में कई दुर्दांत अपराधियों के मनोविज्ञान को दिलचस्पी से पढ़ने का प्रयास किया और कुछ चरित्रों का अपने लेखन में इस्तेमाल भी किया है। उनका ठंडापन और किसी भी तरह की भावुकता से मुक्त होकर हत्या जैसी कार्रवाई आपकी रीढ़ में सिहरन पैदा कर सकती है। पुलिस की वर्दी के अंदर छिपे वाजे जैसे अपराधी उतने ही ठंडे हत्यारे हो सकते हैं। उत्साह, आदर्श और अनुशासन से लबरेज युवा पुलिस अधिकारी कैसे एक भ्रष्ट और अपराधी वरिष्ठ को अपना आदर्श नायक मानकर धीरे-धीरे पशु बनता जाता है, इसे देखना बड़ा त्रासद अनुभव है। वे जब पुलिस बल में सम्मिलित होते हैं, तभी उन्हें सिखा दिया जाता है कि हमारे कानून और व्यवस्था अपराधी को दंडित करने में आज असमर्थ हैं, अत: यह उनका पवित्र सामाजिक कर्तव्य है कि वे जज और जल्लाद का फर्ज भी निभाएं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया भारतीय समाज में व्याप्त क्रूर कायरता नाम की प्रवृत्ति को रेखांकित करते हैं। किसी ताकतवर के सामने नतमस्तक होने वाला समाज अपने चंगुल में फंसे कमजोर को प्रताड़ित कर आनंद लेता है। हमारा एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी जब किसी अपराधी को हिरासत में लेकर मार डालता है, तो संभवत: वह समाज की इसी प्रवृत्ति को सहलाता है। कुछ भी हो, इंस्पेक्टर वाजे की गिरफ्तारी हमें झकझोरकर जगाने के लिए काफी होनी चाहिए। दिक्कत यह है कि हम भरपूर घृणा से अपने बीच के हत्यारों को तो याद करते हैं, लेकिन कानून के इन रखवालों को न सिर्फ प्रशंसा भाव से निहारते हैं, वरन उन्हें अपना मुक्तिदाता भी मानने लगते हैं। शायद वाजे की गिरफ्तारी से कुछ फर्क आए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हमें फॉलो करें
ऐप पर पढ़ें
ओपिनियन की अगली ख़बर पढ़ें
Hindustan Opinion Column
होमफोटोवीडियोफटाफट खबरेंएजुकेशनट्रेंडिंग ख़बरें