जीएसटी वही, जिससे सबको फायदा

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से जुड़ा राज्यों का मुआवजा विवाद फिलहाल हल होता दिख रहा है। बुधवार को जीएसटी कौंसिल की बैठक से जो बड़ी बात निकलकर बाहर आई, वह यही कि केंद्र ने राज्य सरकारों को दो रास्ते...

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जीएसटी वही, जिससे सबको फायदा
Rakesh Kumar अरुण कुमार, अर्थशास्त्री
Fri, 28 Aug 2020 1:45 AM

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से जुड़ा राज्यों का मुआवजा विवाद फिलहाल हल होता दिख रहा है। बुधवार को जीएसटी कौंसिल की बैठक से जो बड़ी बात निकलकर बाहर आई, वह यही कि केंद्र ने राज्य सरकारों को दो रास्ते सुझाए हैं, जिनसे वे अपनी आर्थिक मुश्किलों का तोड़ निकाल सकते हैं। पहला विकल्प तो यह है कि रिजर्व बैंक जीएसटी की वजह से हुए नुकसान की पूर्ति उन्हें उचित ब्याज पर 97 हजार करोड़ रुपये कर्ज देकर करे, और दूसरा, इस साल की कुल जीएसटी क्षतिपूर्ति, यानी दो लाख पैंतीस हजार करोड़ रुपये को हासिल करने में रिजर्व बैंक राज्यों की मदद करे।

राज्यों के बकाए मुआवजे का भुगतान एक बड़ा मसला है। दरअसल, जब जीएसटी लागू किया गया था, तब यह तय किया गया था कि शुरुआती पांच वर्षों में संभावित 14 फीसदी राजस्व-वृद्धि न होने पर राज्यों का जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई केंद्र करेगा। इसके लिए ‘कॉम्पनसेशन फंड’ बनाया गया, जिससे राज्यों को मुआवजा देने का भरोसा दिया गया। मगर पिछले डेढ़ साल में देश की आर्थिक सेहत यूं खास्ता हुई है कि जीएसटी संग्रह राज्यों को दिए जाने वाले मुआवजे को पूरा नहीं कर सका। रही-सही कसर लॉकडाउन और कोरोना संक्रमण-काल ने पूरी कर दी है। यानी, राज्यों को मुआवजे देने के लिए केंद्र सरकार के पास पैसे ही नहीं हैं, जबकि जीएसटी के कारण राज्यों का राजस्व घट रहा है। इसीलिए कर्ज लेने की सलाह बुधवार की बैठक में दी जाती रही। मगर सबसे बड़ा सवाल यही था कि कर्ज चुकाएगा कौन?

मुश्किल सिर्फ यही नहीं है। 1 जुलाई, 2017 को जब इसे लागू किया गया था, तब यह भी कहा गया था कि इससे ‘एक देश-एक कर’ का सपना साकार होगा। कई टैक्सों को आपस में मिला देने से पेपर-वर्क कम होने और कारोबारियों को राहत मिलने का भरोसा दिया गया था। बेशक कुछ हद तक सरकार को इसमें सफलता मिली है, लेकिन व्यापक तौर पर इसने कर-प्रक्रिया को और उलझा दिया है। मसलन, अगर कोई कार-निर्माता कंपनी पूरे देश में अपना कारोबार चलाती है, तो उसे आज भी हर साल करीब 1,100 फॉर्म भरने पड़ते हैं। अनुमान है कि जीएसटी के तहत देश भर में हर महीने करीब चार अरब प्रविष्टियां दर्ज की जाती हैं।

इनपुट क्रेडिट भी एक ऐसा मसला है, जो जीएसटी को जटिल बनाता है। इनपुट क्रेडिट का अर्थ है, आउटपुट यानी उत्पाद को बेचने तक हर चरण पर जमा किया गया अलग-अलग टैक्स, जिसे आउटपुट टैक्स में घटाकर शेष रकम कंपनी बतौर कर जमा करती है। अभी तमाम कंपनियां परिवहन, लेखा-जोखा संबंधी कामों, स्टोरेज आदि मदों के लिए अलग-अलग टैक्स चुकाती हैं और उन पर इनपुट क्रेडिट लेती हैं। इसका लाभ लेने के लिए कई तरह की फर्जी कंपनियां भी बनाई जाती हैं, जबकि अंत में कर का सारा बोझ उपभोक्ता ही वहन करता है। ऐसे में, अंतिम चरण में ही कुल टैक्स लिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि फर्जी कंपनियों के माध्यम से चल रहे इनपुट के्रडिट के खेल पर ठोस लगाम लग सके। इससे जीएसटी की मासिक प्रविष्टि भी घटकर चार करोड़ तक हो जाएगी, यानी सही अर्थों में पेपर-वर्क कम हो सकेगा।

पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली कहा करते थे कि देश की पांच फीसदी कंपनी ही कुल कर-संग्रह में 95 फीसदी का योगदान करती हैं, जबकि शेष 95 फीसदी कंपनियां सिर्फ पांच फीसदी योगदान करती हैं। अनुमान है कि देश में जीएसटी के तहत रजिस्टर होने वाली इकाइयों की संख्या 1.2 करोड़ है, जिनमें से 70 लाख इकाइयां टैक्स देती हैं। इन 70 लाख में से भी करीब पांच प्रतिशत ऐसी कंपनियां हैं, जिनका योगदान कुल कर-संग्रह में 95 फीसदी है। लिहाजा, जीएसटी को ‘लास्ट-प्वॉइंट टैक्स’ बना देने से कुछ कंपनियां अगर टैक्स नहीं भी देती हैं, तो देश को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं होगा। इसके विपरीत, अगर व्यवस्था सरल बन जाएगी, तो संभव है कि टैक्स चुकाने वाली कंपनियों से कहीं अधिक कर जमा हो सकेंगे।

जीएसटी को ‘लास्ट-प्वॉइंट टैक्स’ बना देने से कई दूसरे फायदे भी होंगे। इसका सबसे बड़ा लाभ असंगठित क्षेत्र को मिलेगा, जो जीएसटी के कारण बुरी तरह हलकान है। असंगठित क्षेत्र में करीब छह करोड़ कंपनियां या उद्यम हैं, जिनका कुल कारोबार जीडीपी का करीब 31 फीसदी है। फिर भी, विकास दर की गणना में इनको शामिल नहीं किया जाता है। तमाम ऐसे अध्ययन हुए हैं, जो यह पुष्टि करते हैं कि जीएसटी की वजह से असंगठित क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ है। चूंकि इनपुट क्रेडिट का लाभ संगठित क्षेत्र की कंपनियां उठाती हैं, इसलिए उनके उत्पाद अपेक्षाकृत सस्ते हो चले हैं। इससे असंगठित क्षेत्र में खरीदारी करने वाले उपभोक्ता अब संगठित क्षेत्र का रुख करने लगे हैं।

असंगठित क्षेत्र के उद्यमों को अव्वल तो जीएसटी से छूट दी गई है, फिर उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे इनपुट क्रेडिट का लाभ ले पाएंगे। कोई छोटा दुकानदार किसी अकाउंटेंट द्वारा टैक्स संबंधी गुणा-भाग का सलीका भला कहां सीख पाता है! हालांकि, सच यह भी है कि जीएसटी का कुछ लाभ बेशक संगठित क्षेत्र को मिला है, लेकिन असंगठित क्षेत्र की हानि से अगर उसकी तुलना करें, तो हमारे हाथ खाली नजर आते हैं। पिछले तीन साल से अर्थव्यवस्था में दिख रही सुस्ती की भी यही वजह है कि हमारा असंगठित क्षेत्र लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है।

देखा जाए, तो अपने यहां जीएसटी की बुनियाद ही कमजोर है। हम फ्रांस में इसकी सफलता का उदाहरण देते हैं, जहां 1954 से यह लागू है। मगर ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि वहां असंगठित क्षेत्र नहीं है। अमेरिका ने तो अपने यहां अब तक न वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) लागू किया है, न जीएसटी। इसलिए, देश के आर्थिक ढांचे के मुताबिक अपने यहां कर-ढांचा बनना चाहिए। इसे वास्तविक अर्थ में सरल भी होना चाहिए, फिर चाहे उसका नाम जीएसटी हो या कुछ और। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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