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इस बार नहीं दिख रही कोई लहर

लोकसभा चुनाव के अब तक चार चरण पूरे हो चुके हैं, लेकिन इनमें न तो मोदी लहर दिखी है और न ही मोदी-विरोधी लहर। ऐसी कई वजहें हैं, जो स्पष्ट करती हैं कि अब तक के चुनाव बिना किसी लहर के संपन्न हुए हैं। पहला...

इस बार नहीं दिख रही कोई लहर
संजय कुमार निदेशक, सीएसडीएसTue, 30 Apr 2019 01:43 AM
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लोकसभा चुनाव के अब तक चार चरण पूरे हो चुके हैं, लेकिन इनमें न तो मोदी लहर दिखी है और न ही मोदी-विरोधी लहर। ऐसी कई वजहें हैं, जो स्पष्ट करती हैं कि अब तक के चुनाव बिना किसी लहर के संपन्न हुए हैं। पहला सुबूत तो मतदान प्रतिशत में छिपा है। 2014 के संसदीय चुनावों से अगर तुलना करें, तो समान निर्वाचन क्षेत्रों में पहले तीन दौर में मध्यम या निम्न मतदान हुआ है। चूंकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चौथे चरण के अंतिम आंकड़े सामने नहीं आए थे, इसलिए यहां सिर्फ पहले तीन चरणों की बात की जा रही है। पहले चरण में कुल 69.5 फीसदी मतदान हुआ, जो पिछले लोकसभा चुनाव से सिर्फ 1.5 फीसदी अधिक था। दूसरे चरण में 69.4 फीसदी वोट डाले गए, जो 2014 के चुनाव के लगभग बराबर है और तीसरे चरण में 67.8 फीसदी मतदाताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, जो पिछले आम चुनाव से महज 1.8 फीसदी ज्यादा है।
चुनाव में यदि कोई लहर होती है, तो भारी मतदान होता है, जैसा कि 1977 में हुआ था। साल 1971 के आम चुनाव की तुलना में 1977 के चुनाव में पांच फीसदी अधिक मतदाताओं ने वोट डाले थे। इसी तरह, साल 1980 के लोकसभा चुनाव की तुलना में 1984 के चुनाव में करीब आठ फीसदी अधिक वोटिंग हुई थी। 2014 में ही 2009 की तुलना में आठ फीसदी अधिक वृद्धि देखी गई थी। मगर मौजूदा आम चुनाव में शुरुआती तीन चरणों में ऐसा कुछ नहीं दिखा है। वोटिंग प्रतिशत में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। हां, कुछ निर्वाचन क्षेत्र इसमें अपवाद स्वरूप जरूर गिने जा सकते हैं।
सीएसडीएस ने चुनाव से पहले एक सर्वेक्षण किया था। उस सर्वे का नतीजा यही संकेत दे रहा था कि गैर-भाजपा समर्थकों में इस आम चुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं है। क्षेत्रीय दलों का सामाजिक रूप से हाशिये पर मौजूद समुदायों के बीच बड़ा जानाधार होता है और ये समुदाय उच्च जाति के मतदाताओं की तुलना में बहुत कम मुखर होते हैं। हमने शुुरुआती चरणों में कोई लहर इसलिए भी नहीं देखी, क्योंकि शुुरुआत में ज्यादातर उन राज्यों में चुनाव हुए, जहां क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हैं। चुनाव के दिन मतदान को लेकर भारतीय जनता पार्टी के मतदाताओं में अधिक उत्साह दिखा। संभावना यही है कि क्षेत्रीय दलों के समर्थक कम मुखर, मगर प्रतिबद्ध हैं, और उन्होंने अपनी पसंद की पार्टी का साथ चुनावी संभावनाओं की परवाह किए बिना दिया होगा। यह कतई संभव नहीं दिखता कि जिन लोगों ने 2014 में मोदी लहर के बावजूद अपनी पसंदीदा क्षेत्रीय पार्टियों या कांग्रेस को वोट दिया होगा, वे इस बार अपने-अपने दलों के पक्ष में मतदान 
नहीं करेंगे। यही बात भाजपा के मतदाताओं पर भी लागू होती है। पार्टी के वफादार समर्थकों ने भी ठीक उसी 
तरह मत डाला होगा या वे वोटिंग कर रहे होंगे, जिस तरह से उन्होंने साल 2014 में किया था।
शुरुआती तीन चरणों में मोदी समर्थन या विरोधी लहर के न होने की पुष्टि इन चरणों के चुनावी मुकाबले के स्वरूप से भी होती है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना जैसे राज्यों में, जहां भारतीय जनता पार्टी प्रमुख राजनीतिक दल नहीं है, चुनावी मुकाबला आमतौर पर क्षेत्रीय पार्टियों के बीच है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे सूबों में भाजपा बेशक प्रमुख प्रतियोगी पार्टी है, लेकिन यहां भी क्षेत्रीय पार्टियां इसके खिलाफ गठबंधन बनाने में कामयाब रही हैं। इन गठबंधनों ने भाजपा के लिए अच्छी-खासी चुनौती पेश की है, भले ही इसका चरित्र और इसकी मात्रा अलग-अलग क्यों न हो। बिहार या महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में भाजपा को क्षेत्रीय पार्टियों के गठबंधन से कहीं ज्यादा चुनौती मिलती दिख रही है। मगर इन राज्यों में भी मतदान के आंकड़े 2014 की तुलना में कमोबेश समान दिख रहे हैं। पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में भाजपा अपने लिए भले ही उम्मीद खोज सकती है, लेकिन वहां भी उसे क्रमश: तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल से कड़ी टक्कर मिल रही है। शुरुआती तीन चरणों में ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों से मिल रही चुनौती का ही नतीजा है कि आज मोदी लहर कहीं नहीं दिखाई दे रही।
हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगा कि मौजूदा चुनाव बिना किसी लहर के समाप्त हो जाएगा। राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव की गति तेज होने के बाद संभव है कि इस पैटर्न में बदलाव आए। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन राज्यों में मुख्य टक्कर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है। ऐसी ही स्थिति पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी है, जहां नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव जैसे दिग्गज चुनावी मैदान में हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले चरणों में वाराणसी, अमेठी, आजमगढ़ और भोपाल जैसी हाई-प्रोफाइल लोकसभा सीटों के चुनाव होने हैं, इसलिए संभव है कि इन निर्वाचन क्षेत्रों के मतदान ऐसी कोई लहर पैदा करें, जिसके गवाह 2014 के चुनाव में हम बने थे। हां, एक फर्क यह हो सकता है कि पिछले आम चुनाव में सिर्फ मोदी लहर थी, पर इस बार मजबूत मोदी-विरोधी लहर की संभावना से भी इनकार नहीं करना चाहिए। सब कुछ अगले चरणों के मतदान पर टिका है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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